
वो आई धूप
बंद खिड़कियों के शीशों से
कमरे कि देहलीज़ लांघ कर
वो लाई धूप
उस दूर जलती आग कि आंच
हथेली में बचा कर
किरनों की गुस्ताख हाथों ने
चुपके से मला
वो आलसी गर्माहट मेरे गालों पर
दूर से आई आंच
मेरे पल का हिस्सा बन गई
कुछ कहा नहीं
पर कुछ एहसास सा दे गई
कुछ कहते कहते
यूँ आंख सी लग गई
कुछ देर मेरे साथ
वो धूप भी सो गई




