
उन ऊँचाइयों से देखा है
ज़िंदगी को उड़ते हुए
हवाओं का रुख़ जिस तरफ़ था
उसी रुख़ बहते हुए
सूरज को ढलते देखा है
डूबते क्षितिज को रंगते हुए
जैसा रंग खुद का था
उसी रंग में घुलते हुए
पानी को बहते देखा है
ठहरे पथरों पर छलाँगे भरते हुए
जिस तरफ़ उसका अंत था
उसी समंदर की तरफ़ मदमस्त बहते हुए
रोशनी को खिड़कियों से आते देखा है
गरम और नरम बाँहें लिए
मलमल अंधेरे पर धूल की सीडी रख
चुपचाप अंधेरे कमरे में घुसते हुए
थोड़ा रंग, थोड़ी उड़ान
रोशनी और बहाव को अपनी मुट्ठी में भर
इन सब में अपने आप को देखा है
गुजरी है ज़िंदगी, इनमें अपनी परछाई ढूँढते हुए
हर एक शय में
अक्स अपना ढूंढ़ते रहे
May you find what you seek. Beautifully worded ✨
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🙏🙏🙏🙏
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