कुछ दायरे
कुछ रस्मों रिवाज
मेरी हदें तय किया करती हैं
मेरा वजूद
मेरा मज़हब
मेरी पहचान बताया करती हैं
मुझे कहाँ जाना है
मुझे क्या करना है
अक्सर ये बयान करती हैं
किनारों में रहकर महफ़ूज़ रहा हूँ
मुक़र्रर मंज़िल की तरफ़ लाचार बहता रहा हूँ
अपनी पहचान भूल, खारा हो गया हूँ
समंदर मेरी मंज़िल नहीं
मैं कोई दरिया भी नहीं
मैं तो पानी हूँ
मेरा कोई किनारा ही नहीं
उन दायरों को
पिघलते देखा है
अपने ज़हन को खुलते देखा है
पानी को बेख़ौफ़ बहते देखा है
अपनी ख़्वाहिशों की ओर, किनारों के परे
लहरों को रास्ता बनाते देखा है
लहरों को रास्ता बनाते देखा है
लाज़वाब 👏👏👏
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शुक्रिया 🙏🙏🙏
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Wah wah
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Shukriya dost
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Are wah !!!kya baat kahi col saab ….jab dukh hota hai tab aankhon se nikaltha hai paani ,aur gusse ki g armi ko sahlaatha hai paani
Your words are “inexplicable”…. Keep writing ….god bless!!!!😍😍😍
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Shukriya
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Wah bhai wah….bahut sundar Kavita hein..it touched my heart…
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Wah Wah! Beautifully written.
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Thanks Achan 😊❤️
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Thanks Achan
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