
रात की बात
मुझसे हुई
खामोश रहे
कुछ लम्हे दोनों
फिर लंबी बात हुई
…
डर नहीं लगता, क्या तुमको?
उसने पूछा, सहम सहम कर
मैं ख़ुद हूँ डरा,
और चकित हूँ
मुझसे मिलने
क्यों आया कोई
…
फ़िर व्यथा
अपनी सुनाई
मेरे बारे
कुछ पूछा नहीं
कई अरसे का बांध भरा था
आज अचानक टूटा अभी
…
कहने लगा
अब मेरी सुनो
धीरे चलता है
वक्त संग मेरे
बैठो मेरे पास,
है समय बहुत
…
सूरज जला कर चला गया
मैं लाया हूँ
लेप शीत का
धरती थक कर,
झुलस गई थी
अब सोयेंगे
बेफ़िक्र सभी
…
मैंने कहा
आड़ में तुम्हारे,
रहते हैं दुष्ट निशाचर
भूत पिशाच भी
सुना छिपे हैं
घोर अंधेरे में कहीं
…
बोला वो
मुस्कुरा कर
जिसके कर्म,
फल उसी को साजे
करे कोई
दोष मुझ पर क्यों दागे?
…
मन का मैल
रोशनी से कहाँ मिटा है
अमानव, पिशाच
तो हृदय में छिपा है
…
मुझमें मासूम नींद है
तो मुझमें निर्मम जुर्म भी
जो जैसा ढूँढता है
अँधेरे में उसको मिलता वही
…
मैं शून्य हूँ
मेरा कुछ भी नहीं
ना रंग, ना रोशनी है
अंधेरा हूँ, मुझमें कोई अलग नहीं
…
दिन रोशनी है
सूरज से है वो बलवान
रात अंधेरा है
सब कुछ खोने में, उसकी पहचान
…
आज आए हो मिलने
थोड़ी देर सो कर जाना
अगले दिन की दिनचर्या के नए
बीज बो कर जाना
…
सो गया मैं, बेफिक्र
रात की बात
शायद ख़त्म हो गई थी
कहना और भी था शायद
पर ममता भरी रात
खामोश हो गई थी
…
